अज़ाब ये भी, किसी और पर नहीं आया,
कि, एक उम्र चले, और घर नहीं आया।
उस एक ख्वाब की हसरत में जल-बुझी आँखें,
वो एक ख्वाब, कि अब तक नज़र नहीं आया।
करें तो किस से करें, ना-रासाईयों का गिला,
सफ़र तमाम हुआ, हमसफ़र नहीं आया।
दिलों की बात, बदन की ज़बान से कह देते,
ये चाहते थे मगर, दिल इधर नहीं आया।
अजीब ही था दौर-ए-गुमराही का 'रफ़ीक',
बिछड़ गया तो कभी लौट कर नहीं आया।
हारिम-ए-लफ्ज़-ओ-म'आनी से निसबतें भी रहीं,
मगर सलीका-ए-अर्ज़-ए-हुनर नहीं आया।