Saturday, April 21, 2012

कुछ अँधेरा भी जरूरी है ग़म-ए-यार के साथ

कुछ अँधेरा भी जरूरी है ग़म-ए-यार के साथ,
अब दिया कोई न रखे मेरी दीवार के साथ।
मैं जो एक उम्र नासफत में रहा, तब जाना,
राह भी चलती रही है, मेरी रफ़्तार के साथ।
हम तो यूं ही नहीं बाज़ार-ए-सुखन में 'फ़राज़',
यूं ही चल पड़ते हैं हर एक खरीददार के साथ।

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