Saturday, June 29, 2013

माटी की कच्ची गागर को क्या खोना क्या पाना बाबा

माटी की कच्ची गागर को क्या खोना क्या पाना बाबा,
माटी को माटी है रहना, माटी में मिल जाना बाबा |

हम क्या जानें दीवारों से कैसे धूप उतरती होगी,
रात रहे बहार जाना है, रात गए घर आना बाबा |

जिस लकड़ी को अन्दर-अन्दर दीमक बिलकुल चाट चुकी हो,
उसको ऊपर चमकाना, राख पे धूप जमाना बाबा |

प्यार की गहरी फुन्कारों से सारा बदन आकाश हुआ है,
दूध पिलाना तन डसवाना, है दस्तूर पुराना बाबा |

इन ऊँचे शहरों में पैदल सिर्फ़ दिहाती ही चलते हैं,
हमको बाज़ारों से इक दिन काँधे पर ले जाना बाबा |  ~ बशीर बद्र

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