अमूमन मेरी हसरत को चाहत का नाम दे गये लोग ,
जीश्त को इन्तेहा-ए-आशिकी का पैग़ाम दे गये लोग !
क्या खूब चली थी वो दौर-ए-दीदार-ओ-इश्क की मगर ,
रिश्तों के शक्ल में जिम्मेदारियां तमाम दे गये लोग !
जुबान से तो यूँ कभी कोई झूठा वादा न किया मगर -
बस एक को ख़ास बनाने में मुझे बदनाम दे गये लोग !
अब जो खलाओं पे चलने की आदत न रही मुझको ,
नासूर-ए-ज़ख्म मेरे तलवों को सर-ए-आम दे गये लोग !
वो सुबह मेरी होती थी हर रोज़ गुलफ़ामों के भीड़ में ,
तन्हाई के इस महफ़िल में ये क्या शाम दे गये लोग !
-रणजीत
जीश्त को इन्तेहा-ए-आशिकी का पैग़ाम दे गये लोग !
क्या खूब चली थी वो दौर-ए-दीदार-ओ-इश्क की मगर ,
रिश्तों के शक्ल में जिम्मेदारियां तमाम दे गये लोग !
जुबान से तो यूँ कभी कोई झूठा वादा न किया मगर -
बस एक को ख़ास बनाने में मुझे बदनाम दे गये लोग !
अब जो खलाओं पे चलने की आदत न रही मुझको ,
नासूर-ए-ज़ख्म मेरे तलवों को सर-ए-आम दे गये लोग !
वो सुबह मेरी होती थी हर रोज़ गुलफ़ामों के भीड़ में ,
तन्हाई के इस महफ़िल में ये क्या शाम दे गये लोग !
-रणजीत
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