एक ग़ज़ल तेरे लिए ज़रूर लिखूँगा
बेहिसाब, उसमें तेरा कसूर लिखूँगा।
तू गु़फ्ता़र का माहिर, तू किरदार का माहिर,
पर हुस्न को तेरे, तेरा गुरूर लिखूँगा।
टूट गये बचपन के, तेरे खिलौने सारे,
अब दिलों से खेलना, तेरा दस्तूर लिखूँगा।
रहा इश्क का द़वा तुझे तमाम उम्र,
वफ़ा की द़हलीज़ से तुझे मफ़रूर लिखूँगा।
खुद सकता है जो तेरा जुदाई का फैसला,
ऐसे हर एक दाम को नामन्जू़र लिखूँगा।
हमें कहने की आदत नहीं लिखने का शौक है,
जज्बों को अपने, कलम की तासीर लिखूँगा।
तेरा वजू़द, मेरा वजूद मुझे एक सा लगे,
पर तुझे मैं खुद से बहुत दूर लिखूँगा ।
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