Friday, July 1, 2011

जिस सिम्त भी देखूं नजर आता है कि तुम हो..

जिस सिम्त भी देखूं नजर आता है कि तुम हो,
ऐ जाने-जहां ये कोई तुमसा है  कि तुम  हो !

ये  ख्बाब  है  खूशबू है,   झोंका है कि पल है
ये    धुंध   है बादल है साया है कि तुम हो !

देखो   ये    किसी और की आंखें हैं कि मेरी,
देखूं  ये  किसी और का चेहरा है कि तुम हो !

ये   उम्रे-गुरेजां   कहीं   ठहरे    तो ये जानूं
हर सांस में मुझको यही लगता है कि तुम हो !

इक   दर्द    का फैला हुआ सहरा है कि मैं हूं
इक मौज में आया हुआ दरया है  कि तुम हो !

ऐ जाने ‘फराज‘ इतनी भी  तौफीक  किसे  थी
हमको   गमे-हस्ती  भी गवारा है कि तुम हो !

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