जब ठंडी हवा सिरहा-सिरहा, छूकर बदन को गुजरती है,
कभी रूकती है कभी चलती है, सर-सर साँसे भरती है,
तुम छू कर गुज़र जाते हो, फिर याद बहुत आते हो|
जब पतझड़ के पत्ते उड़-उड़, गीले शीशों से चिपकते हैं,
जब दर्द उभर कर नस-नस में, टूटे शीशों से चटकते हैं,
तुम मन चटका जाते हो, फिर याद बहुत आते हो|
जब ओस के छोटे-छोटे कण, नन्हे बच्चों से उछलते हैं,
जब धूप की किरणों से तपकर, बर्फ के कण पिघलते हैं,
तुम फिर से खो जाते हो, और याद बहुत आते हो|
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