याद रो रो के तेरी सताती रही,
आग जुदाई की दिल को जलाती रही|
आंधियाँ जब गुजरती रहीं बाग़ से,
साख-ए-गुल अपने सर को झुकाती रही|
अपनी मोहब्बत की नाकामियां क्या करू,
ख्वाहिश-ए-इश्क हर कदम मुझे रुलाती रही|
वो दूसरों से हंस-हंस के मिलते रहे,
मेरी ही बदकिश्मती अश्क बहाती रही|
हम वफ़ा जिनसे करते रहे उम्र भर,
हमपे उनकी जफ़ा मुस्कुराती रही|
शायद कुसूर मेरी मोहब्बत का ही है,
जो सब सहकर भी उन्हें चाहती रही|
जो सब सहकर भी उन्हें चाहती रही|
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