Wednesday, May 25, 2011

हमारे भीतर का कल्पवृक्ष

जब हमारी कल्पना शक्ति सकल्प शक्ति में परिणत हो जाती है, तो मन कल्पवृक्ष बन जाता है और इच्छित फल देने लगता है। हमें मात्र अपने भीतर के डर, अहंकार, लोभ इत्यादि की खरपतवार को दूर करना होता है|
एक पुरानी कथा है। एक व्यक्ति जंगल से गुजर रहा था। भूख-प्यास से बेहाल हो गया। गर्मी और थकान से हारा वह व्यक्ति एक छायादार वृक्ष के नीचे बैठ गया। उसे यह पता नहीं था कि वह जिस वृक्ष के नीचे बैठा है, वह कल्पवृक्ष है। गर्मी से निजात मिली, तो सोचा कि काश, कहीं से खाना-पानी मिल जाता। अचानक उसके सामने सुस्वादु भोजन का थाल और जल से भरा मटका उपस्थित हो गया। उसने पेट भरकर खाना खाया और पानी पिया। अब उसका दिमाग चलने लगा। उसके भीतर डर और आशंकाएं सिर उठाने लगीं। उसने सोचा, हो न हो, इस पेड़ पर कोई भूत रहता होगा, जिसने यह चमत्कार किया। तब तो वह भूत पेड़ से कूदकर मुझे खा जाएगा। उसके इतना सोचने भर की देर थी कि पेड़ से एक भूत कूदा और उसे खा गया। निश्चित रूप से यह कथा कपोल कल्पित है, लेकिन इसमें जीवन का मर्म निहित है।
भारतीय दर्शन मानता है कि हमारे सभी कर्मों का कारण मन है। यदि हम चोरी करते हैं, तो उसके लिए पहले मन को तैयार करते हैं। इसी तरह किसी की मदद के लिए भी मन की स्वीकार्यता लेनी होती है। उपनिषद में कहा गया है, मन एव मनुष्याणा कारण बधमोक्षयो: अर्थात, मन बंधन का भी कारण है और मोक्ष का भी। मन के परिष्कृत हो जाने से या उसमें सकारात्मक ऊर्जा भर जाने से स्वत: दया, करुणा, उदारता, सेवा, परोपकार जैसे सद्गुणों का उदय हो जाता है।
सकारात्मक विचारों के प्रवाह से हम मन को परिष्कृत करते हैं। अब बात आती है कल्पवृक्ष की तरह सोचे हुए को सच करने की। हम सबके भीतर एक कल्पना शक्ति होती है। मन में आने वाले विचार इसी कल्पना शक्ति द्वारा संचालित होते है। मन परिष्कृत तभी होगा, जब हम अपनी कल्पना शक्ति से सकारात्मक विचारों का सृजन करने लगेंगे। मन एक ऐसी उत्पादन मशीन है, जो कच्चे माल को परिष्कृत करके प्रभावी स्वरूप देती है। हमारी कल्पना और विचार उसका कच्चा माल हैं। विचार यदि सकारात्मक है, तो उसकी परिणति प्रभावी होती है, इसी प्रकार नकारात्मक कल्पनाएं वहां से और भी प्रभावी होकर निकलती हैं। हमें मन रूपी मशीन को सकारात्मक कल्पनाओं का कच्चा माल ही देना होगा।
कथा में कल्पवृक्ष के नीचे बैठे व्यक्ति की तरह यदि हमारे भीतर संशय, संदेह और डर बने हुए हैं, तो आशंका रूपी भूत हमें निश्चय ही खा जाएगा। हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मन में बैठा हुआ डर या वहम हमें सोच के अनुसार ही फल देने लगता है। भले ही भूत-प्रेत का अस्तित्व न होता हो, लेकिन ऐसी स्थिति में हमें वह न होते हुए भी दिखाई देने लगता है और उसकी आहट भी हम सुनने लगते हैं। यह एक प्रकार का मनोविकार है। हमें अपनी कल्पनाओं को डर और संशय से निकाल कर सृजनात्मक और सकारात्मक सोच में पिरोना होगा। तब सकारात्मक प्रतिफल प्राप्त होने लगेंगे। यह प्रक्रिया हमारी कल्पनाओं को संकल्प में बदल देंगी। हम जैसा चाहेंगे, उसी के अनुसार कार्य करेगे। इसी को मन को वश में करना कहते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, 'जिसका मन वश में है, राग-द्वेष से रहित है, वह स्थायी प्रसन्नता प्राप्त करता है। जो व्यक्ति मन को वश में कर लेता है, उसी को कर्मयोगी कहा जाता है।' भगवान बुद्ध ने कहा था, 'मन को मारने से इच्छाएं नहीं मरती, इसलिए मन को मारने की नहीं, साधने की जरूरत है। मन कभी खाली नहीं रह सकता। अत: उसे नकारात्मक विचारों से मुक्त रखकर हमेशा सकारात्मक विचारों का ही मथन करते रहना चाहिए।'
सकारात्मक कल्पनाओं को संकल्प में बदलकर हम मन को साध लेते हैं। फिर मन कल्पवृक्ष की तरह सदैव अच्छे परिणाम देने लगता है।

Reshared from Dainik jagran

No comments:

Post a Comment